Tuesday, September 8, 2015

न स्याही मेरे संग चली और न शब्दों ने दिया साथ


न स्याही मेरे संग चली और न शब्दों ने दिया साथ,
अपनी तो थकी थकी सी ही गुज़री हर रात। 
माँ के तो हाथ भी न काँपे थे सुबह फावड़ा थमाने में
उसे भी कौन सी मिली थी किताबें इस ज़माने में।

मेरी बनाई हुई ईंटें तो चली जाती ही हैं स्कूल
तो क्या हुआ अगर मुझको ही वो जातीं हैं भूल।
मैं अकेला ही बेबस बेचारा तो नहीं
कितने ही तो है जिनको सहारा तो नहीं।

ऐ दरिया है तू और मैं समंदर हूँ तुम्हारा
रोको नहीं मुझको की मुकद्दर हूँ तुम्हारा।
बढ़ने दो,बढ़ने दो, मुझे बढ़ना है,बढ़ना है। 
पढ़ने दो, पढ़ने दो, मुझे पढ़ना है, पढ़ना है






1 comment:

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