Saturday, September 25, 2010

बरसात की एक रात

जम कर बरसी व्याकुल बरसात
और भिगो गयी तन को भी, मन को भी
अँधेरी अनोखी अजब सी ये रात
भीगती रही और हंसती रही।
तारे दिखे नहीं तो क्या
चाँद नज़र न आया, न सही
और भी बेहतर कुछ मिल गया
ऐसा भी होता है कभी,कभी।
कुछ हम भीगे, कुछ तुम भीगी
कुछ भींग गया आसमान
यूँ ही भीगने, भागने में
बरस गए कई अरमान।
बस यूँ ही ये बदल बरसते रहे
यूँ ही तो होती रहे बरसात
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहे
और कभी न बीते ये अनोखी रात।

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