Saturday, October 29, 2011

वक्त ने किया क्या...

चंद लम्हे बचे थे मुठ्ठी में, कुछ बह गए थे पानी से
संजोया उन्हें, संभाला उन्हें, की खर्च न हो जाये कहीं।
किताब के पन्नो के बीच, रखा उन्हें ये सोच कर
की सँभालते सँभालते सिलवटें न पर जाये कहीं।

सोचा नहीं एक पल भी ये, किताब भला वो कौन सी थी
इतिहास के पन्नो में भी लम्हे हो जाते हैं गुम।
गणित के गणित में भी लम्हे विलोम हो जाते हैं
फिर कौन सी वो किताब भला जहाँ लम्हे संभाले मैं और तुम।

बूक्शेल्फ़ के एक कोने में फिर,
संकोच में डूबी वो किताब दिखी,
जिसमे कहा था कवि ने एक ,
लम्हे युहीं बहाए जा, बस लम्हे यहाँ बहाए जा।