आज भी जब मिलते हैं पुराने दोस्तों से
बहुतों से नहीं मिलते, न बहुत बार मिलते हैं
कहते हैं सब वही पुरानी बात हमसे
"क्या आज भी तुम रहते हो किताबों में आँखें गोते"
और हम कहतें हैं उनसे, अपने ही अन्दाज ये बयां में
वक्त के बीतने में, गुजरने में लम्हे
वक्त के बिखरने में, बिगढ़ने में लम्हे
हमेशा, हर जगह, एक से कहाँ होते?
मेज़ पर रखी उस पुरानी किताब के पन्ने
कभी खामोश होते हैं, कभी गर्म हवा में फरफराते हैं
कहते हैं हैं कभी दबी दबी जुबां से हमसे
आजकल क्यूँ नहीं अपनी छाती से हमे लगा के सोते
क्यूँ तुम लैपटॉप के पन्ने में अपनी
तक़दीर खोजते हुए, कभी टटोलते हुए
ज़िन्दगी कों माय दोकुमेंट्स के फोल्डर में फाइल करके
हुए जा रहे हो बस होते होते!
छह महीने से बुकशेल्फ मे एन्चंत्रेस ऑफ़ फ्लोरेंस
नयी नवेली दुल्हन सी बेचैन है अपने सुहागरात के लिए
कभी कुछ भी तो नहीं कहती, फिर भी
याद करते हैं उसे हम सोते सोते
कुछ किताबें ऐसी भी हैं जिनको पढ़ा है कुछ बाहर से
जिनके बारे मे न तो अनजान हैं न कुछ जानते हैं
न बेखबर है जिनसे, न पहचानते हैं
जो बस रह गयी बंद, शुरू होते होते !
कुछ किताबें तो ऐसी भी हैं, मन के किसी कोने मे बंद
जो लिखी ही नहीं, बस रह गयीं एक ख्याल बन कर,
इनके भी फसल लगाने के, काटने के लिए
कुछ नन्हे नन्हे से बीज होते, बीज होते, बीज होते!
1 comment:
Prabhash, this is awesome!! Look forward to more great posts.
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