Friday, August 10, 2012

Blame it on the Rain

कभी बारिश के पानी में घंटों नहाये थे
कभी छोटी सी गुमटी के नीचे चाय-पकोड़े खाए थे
कभी  टपकती छत के नीचे बाल्टी के भरने का किया इंतज़ार था
और सीलन  भरी दीवारों पे बन  आई मधुबाला से प्यार था
चलो  बारिश ओढ़ कर बन जाए इन्द्रधनुष
कहें  लोग क्या रंग  छोड़ गया वाह क्या कलाकार  था.

वो काली घटाओं का मंज़र
बूंदें भी सह्नायियाँ सुनाती थीं
मेढकों की तरर तरर
जुगलबंदी  बन जाती थीं
दीवारों की  सीलन में  खिंच आई वो अक्स हमे भी याद है
जवानी की वो आवारा  गलियाँ मन में आज़ाद हैं.

प्याज , हरी मिर्च और उबले हुए अंडे
खाए  थे हमने जो पीपल के नीचे
टमाटरों को देखा था भीगते हुए
कुछ पिल्लै भी भीगे थे अंखियों को मीचे
मुढ़ी  वाली आई  थी, उसको  चाय पिलाई  थी
और चौखट  पर बैठ कर उससे  गप्पें लड़ाई थी
क्या  तुमको भी दिखती है ये तस्वीर
या  वो कैनवास  ही धुल गयी जहाँ   इसको बनायीं थी.

मासूमियत के आगोश  में लड़कपन बितायी थी
कागज़  की कस्तियाँ हमने भी बनायीं थी
तस्वीर है अब भी वहां 
जहाँ उसको बनायीं थी
बस धुल पड़ी  है कुछ उसको हटाओ 
हाथों से अपने ये तस्वीर फिर बनाओ.

उसी इन्द्रधनुषी  चादर से निकाल  लाओ वो सारे रंग
छिडको हवा  में आसमान  को दो रंग
की बूंदों को गुमान हो कलाकार की कुची में
सही कर दो वो काम  जो हैं  इंतज़ार की सूचि में
अपनी ख्वाहिशों  की बारिश को पीलो
छोटी सी  ज़िन्दगी को  सींचो और जी लो.

No comments: