Thursday, July 31, 2014

बातें कुछ अनकही सी

मेरा जहाँ है आज अलग
माँ का अलग है आज जहाँ ,
तारे मगर सब एक ही हैं
एक ही है आसमान।

सारे लम्हे साथ जिये हम,
ये तो मुमकिन ही नहीं
एक चाय और याद करें हम
पुरानी होली और रमज़ान।

नीले पीले गुलाबी स्वेटर
मख्खन जीन्स की एक वो पैंट
चाऊमीन के स्टॉल, पंजाबी वाले
दुर्गा पूजा कि अनोखी शान । 

एक गर्म रोटी, रसोई में जो खायी थी,
एक भीगी सी शर्दी, एक तंग रज़ाई थी,
एक गीले गोबर का फर्श ,
एक छोटा सा अपना मकान।।





 

Sunday, July 27, 2014

कुछ वक़्त में नया सा है

कुछ वक़्त में नया सा है,
कुछ रक्त में नया सा है,
कुछ मंज़िलें हैं और भी
एक रास्ता नया सा है।

पड़ाओ तुम उखाड़ लो
अंगड़ाइयाँ तुम झाड़ लो,
रौशनी भी नयी सी है
और सूर्योदय नया सा है ।

बिस्तरें तुम संभाल लो
एक चाय तुम उबाल लो,
कुछ बिस्किटें नयी सी हैं
गुड़ का स्वाद नया सा है।

फेफड़ों में भर लो साँस
दिल में एक नयी सी आस
पाँवों के है नये निशाँ
जोश कुछ नया सा है।




 

Wednesday, July 23, 2014

कोयल की कुहू इबादत लगी

अल्लाह भी मेरा, मेरा है राम
बन्दे की बंदगी मेरा है काम
जहां घुटने टिकाए हमने ऐ दोस्त ,
वो ज़मीन ही मस्ज़िद हमारी हुई।

कुछ आँसू है पोछे, मुस्कान बटोरे
इन्सानियत के हमने रोज़े रखे ,
फ़िर तो हर लौ , हर रौशनी
हमे चाँद ही सी लगी।

माँ ने कहा था एक बार हमे ,
स्याही का मज़हब है होता अनोखा,
चली थी वो गीता में हिन्दू मगर
कुराण जा बसी तो मुसलमां हुई।

अनजानों ने आज़ानों में ढूँढा उसे ,
पत्थर के भगवानों में ढूँढा उसे ,
प्रभाष जो बैठा फूलों में , झूलों में ,
कोयल की कुहू इबादत सी लगी। 

Sunday, July 13, 2014

मौसम

फुहारों, बौछारों, त्योहारों का मौसम
दिल में बजते झंकारों का मौसम,
तितलियों के पलकने का, फूलों के महकने का
जवानी के जोशीले कुंवारों का मौसम।

बादल के गरजन में लिपटने का मौसम
फ़िर शर्म से सिकुड़ने - सिमटने का मौसम,
अमिया के पकने का, चिड़िया चहकने का,
चूड़ियों, बिंदियों के बाज़ारों का मौसम ।

चाय, पकोड़े, समोसों का मौसम
मनचले, मतवाले मधहोशों का मौसम,
जाम के छलकने का, यूँ ही बहकने का,
उमड़ती ख्वाहिशें हज़ारों का मौसम।

कुछ सास, कुछ साली, घरवाली का मौसम,
दिल में उमड़ती क़व्वाली का मौसम
रिश्ते समेटने का, कुछ यूँ ही बैठने का,
बनते, बहलते संसारों का मौसम।





 

Saturday, July 12, 2014

बदलाओ की एक चौखट

बदलाओ  की एक चौखट लाँघ
फिर से निकले धूप में हम,
न सूरज हमें  पिघला सका
न धरती ने निगला हमे।

रास्ता सामने था नहीं
पर पैरों को मस्ती चढ़ी थी,
और  भुजाओं में जोश इतना
कि  मन  मस्त झोला उठा लिया।

हर  कोई जो अपना सा हमे
वही तो रास्ता रोके खड़ा था,
और सांस का आलम यूँ था कि
आँधियों सी बह रही थी।

डराया  हमे , धमकाया हमे
हज़ारों उम्मीदों का वास्ता दिया,
पर हम तो इतने बह चले थे
कि निकल पड़े , बस चल  पड़े।