Tuesday, April 29, 2014

Musings...

बाल  पकते गए , ज़वानी  हाथ  से  फिसलती  रहीं ,
हम  फ़िर भी  बचपन  की  ऊँगली  पकड़  कर  चलते  रहे।

कुछ  ख्वाब  ऊंघ  रहे  थे  चौखट  पे  बैठ ,
और  अरमान  ऐसे  थे   कि करवट  बदलते  रहे।

जान  आती  कहाँ  से  है   जोशीले  साँसों  में ,
कि  ठहाके  फेफड़ों  में  उबलते  रहे।

और  बनाओ  हमें  न  सिकंदर  दोस्तों ,
हम तो  यूँ  ही  यलग़ारों  में  बहलते  रहें।

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